नकली भेष धर कर जानने निकले असली ज्ञान

चरक ने एक बूढ़े का वेष धरा और चरक संहिता के असली ज्ञान के बारे में जानने निकल गए. नगर के एक प्रसिद्ध वैद्यशाला पहुंचे तो वहां वैद्य रोगियों को देखने में बिजी थे. उनका सहयोगी रोगियों द्वारा लाए गए उपहार समेटने में व्यस्त था. उस समय लोग रुपये-पैसे की जगह अपने घर से लाकर उपहार दिया करते थे. जैसे दर्जी कोई कपड़ा, लोहार कोई घरेलू लोहे का औजार, पंसारी रोजमर्रा की चीजें, किसान अनाज उपहार के रूप में लेकर आता था. जो कुछ नहीं लाता था उसे भी लास्ट में देख लिया जाता था. सो चरक का भी लास्ट में ही नंबर आया. जाते ही उन्होंने वैद्य से पूछा निरोगी कौन? वैद्य ने कहा कि जो नियमित त्रिफला का सेवन करता है. वह बगल वाली दुकान से मिल जाएगा. वह यह बताना नहीं भूले कि वहां औषधियां उनकी देखरेख में ही बनती हैं. चरक ने अपना माथा पीटा और तुरंत वहां से निकल गए. उन्होंने मन में सोचा यहां अस्पताल नहीं दुकानें खुल गई हैं. और भी कई वैद्यशालाओं का यही हाल था. किसी वैद्य ने कहा स्वस्थ वही रह सकता है जो नियमित च्यवनप्राश खाता है तो किसी ने कहा जो स्वर्ण भस्म का सेवन करता है.

नदी किनारे मिला निरोगी रहने का सूत्र

दुखी होकर वे नगर के बाहर निकल गए. उन्होंने सोचा मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए इतना बड़ा ग्रंथ बेकार ही लिखा. लोगों ने शरीर को दवाखाना बना कर रख लिया है. अस्पताल दुकानें बन गई हैं और वैद्य बिजनेसमेन. सब इन किताबों से पढ़कर औषधियां बनाकर बेच रहे हैं. रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है. ऐसे तो पूरा हो चुका निरोगी संसार की कामना. दुखी होकर वे नदी किनारे बैठे गए. तभी देखा कि एक व्यक्ति नदी से नहा कर जा रहा था. उसकी वेशभूषा देखकर वे समझ गए कि यह भी कोई वैद्य ही है. मन नहीं माना तो उन्होंने उस वैद्य से भी वही सवाल पूछा, 'कोरुक?' (यानी कौन निरोगी?) पहले तो वह व्यक्ति उन्हें गौर से देखा फिर बोला, 'हित भुक, मित भुक, ऋत भुक.' यह सुनते ही चरक का चेहरा खुशी से खिल उठा. उन्होंने उस वैद्य को गले से लगा लिया. बोले आपने बिलकुल ठीक कहा जो व्यक्ति शरीर को लगने वाला आहार ले, भूख से थोड़ा कम खाए और मौसम के अनुसार भोजन या फलाहार करे वही स्वस्थ रह सकता है. अगर हम नियमित इसका पालन करें तो शरीर में रोक हो ही नहीं. और गलती से कुछ हो ही गया तो चरक संहिता में उपचार की विधियों का वर्णन किया ही गया है.