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इमारत की हालत खस्ता

इमारत की हालत ऐसी है कि उसे देख कर कोई नहीं समझ सकता कि वो इतनी महत्वपूर्ण जगह होगी। छज्जों पर घास उग आई है, दीवारों पर काई लगी है। रंगाई तो जैसे अरसे से न हुई हो। इमारत के चारों ओर अच्छी खासी जगह है, जो बाउंड्री से घिरी है। इमारत के चारों और नए निर्माण जैसे उसे मुंह चिढ़ा रहे हों।

कोई भारतीय नेता नहीं पहुंचा

आजादी के 70 साल में किसी सरकार ने ये पता करने की कोशिश ही नहीं की कि क्या नेता जी सुभाष चंद्र बोस की कोई निशानी आज के यंगून(तब के रंगून) में अब भी बची है।भारत की आजादी के बाद बर्मा(आज के म्यांमार) और रंगून (आज के यंगून) दौरे पर जाने वाले भारत के बड़े बड़े नेता सिर्फ बहादुर शाह जफर की मजार पर फूल चढ़ाकर वापस लौटते रहे। कोई भी नेताजी से जुड़ी किसी भी जगह पर नहीं गया। जो जगह आजाद हिंद सरकार का मुख्यालय रही हो उसकी खोज खबर किसी ने नहीं ली।

घर के मालिकों को भी नहीं पता

किसी को पता भी नहीं कि ये जगह भारतवासियों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। यहां तक कि घर के मालिकों को भी नहीं पता है कि उनके घर की कीमत भारत के लिए क्या है। घर के वर्तमान ओनर्स जो विदेश में रहते हैं उनके दादा-दादी अभी जिंदा हैं और उन्हीं के भावनात्मक लगाव के कारण इस घर को बेचा या तोड़ा नहीं गया। उनको बस इतना पता है

कि उनके पुरखों को ये घर दूसरे विश्व युद्ध के बाद मिला था। लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस बिल्डिंग में क्या होता था। सू की के पिता के घर के बगल में भवन आंग सान सू की के पिता नेता जी सुभाष चंद्र बोस के मित्र थे। उन्होंने ही अपने बगल का घर नेताजी को दिया था ताकि वहां से वो आजाद हिंद फौज का संचालन कर सकें। आंग सान सू के पिताजी बर्मा के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए सक्रिय थे इसीलिए उन्हे बाद में अपने ही घर में नजरबंद कर दिया गया था।उनका घर 50 यूनिवर्सिटी लेन अब एक म्यूजियम में बदल दिया गया है जहां पर्यटक आते हैं लेकिन किसी को भनक भी नहीं कि बगल वाली इमारत में भारत की देशभक्ति का इतिहास रचा गया था।

रंगून से देशभक्ति को आवाज दे रहा शहीदों का खून

खतरे में इमारत का अस्तित्व

इमारत के आसपास नए निर्माण हो गए हैं। ये इलाका बेहद पॉश है। इस पॉश इलाके में एक जर्जर इमारत का बचा रहना भी अपने आप में आश्चर्य है जबकि किसी को उसके महत्व का पता भी न हो। ये खतरा है कि वृद्ध महिला के बाद घर के मालिकान उसे बेच कर नया निर्माण करा सकते हैं। ऐसे में जल्द कुछ न किया गया तो ये विरासत हमेशा के लिए गायब हो जाएगी।

सबूत लाल किले में रखा है

लाल किले में जो म्यूजियम है वहां एक कुर्सी रखी है जिसके बारे में ये लिखा है कि वो नेता जी सुभाष चंद्र बोस के उस ऑफिस में प्रयोग की जाती थी, जो निर्वासित सरकार का मुख्यालय था। उस कुर्सी के बारे में लिखी सूचना में ऑफिस का पता 51 यूनिवर्सिटी लेन, रंगून लिखा है। यहीं से उस इमारत की खोज की शुरुआत हुई जिसे हमने देशभक्ति का हेडक्वार्टर नाम दिया। इसी पते को खोजते हुए यशवंत देशमुख उस भवन तक पहुंचे जिन्होंने हमसे अपनी ये खोज साझा की।

ऐसे हुई देशभक्ित के हेडक्वार्टर की खोज

सुभाष चंद्र बोस से सीखिए देशभक्ति

आज हम देशभक्ति की बहुत बातें करते हैं। पर वास्तविक देशभक्ति क्या है इसे जानने के लिए आजाद हिंद फौज की सोच को समझना होगा। उस जज्बे को समझना होगा जो प्रेम सहगल, गुरदयाल सिंह ढिल्लों और शाहनवाज हुसैन की रगों में धड़कता था। देशभक्ति किसी की बुराई करने में नहीं है, उस भावना में है जिसके तहत नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज को देश की शान बना दिया था। आज देश को ऐसी ही देशभक्ति की जरूरत है जो देशभक्तों के राजकुमार (प्रिंस ऑफ पैट्रियाट्स, गांधी जी द्वारा सुभाष बाबू को दिया गया नाम) सुभाष चंद्र बोस के जीवन दर्शन में है। देश के लिए सुभाष चंद्र बोस ने अपनी पसंद की समाजवादी विचारधारा की धुर विरोधी एक्सिस पावर्स तक से हाथ मिला लिया था। देश भक्ति का मतलब है देश के लिए अपनी पसंद, नापसंद, विचारधारा, धर्म से ऊपर उठकर काम करना।

प्रधानमंत्री से है अपील

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यंगून की यात्रा पर जाने वाले हैं। हम चाहते हैं कि उन तक इस इमारत की सूचना पहुंचे जिसे अनजाने में या जान-बूझकर पुरानी सरकारें छुपाती रहीं। उन्हें पता चले कि उस धरती पर बेहद पावन एक स्थान है जो भारतवासियों को आवाज दे रहा है। देश पीएम मोदी से मांग करे कि वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की निशानी, देशभक्ति की गवाह उस इमारत को देखने जाएं और उसका उद्धार सुनिश्चित करें। ताकि वो कर्ज अदा हो सके जो इस देश के हर निवासी पर आजाद हिंद फौज के सिपाही चढ़ा गए हैं। 51 यूनिवर्सिटी रोड की इमारत का कर्ज चुकाना होगा। हम सबको। उसे बचाकर।

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