- यूनाइटेड नेशंस इंटरनेशनल डे ऑफ पर्सस विद डिसएबिलिटीज स्पेशल

- शारीरिक रूप से अक्षम होने के बावजूद बने जीवटता की मिसाल

GORAKHPUR : अल्बर्ट आइंस्टीन, एलेक्जेंडर ग्राहम बेल, थॉमस एडिसन, फ्रैंकलिन रूजवेल्ट, जॉन मिल्टन, स्टीफन हॉकिंग। ये चंद मशहूर हस्तियों के नाम भर नहीं हैं। ये वो शख्सियतें हैं जिन्होंने शारीरिक अक्षमता को कभी जिंदगी के आड़े नहीं आने दिया। खुद पर यकीन किया और सफलता की बुलंदियों को छुआ। आज इस विशेष दिन पर हम आपको मिलवाते हैं शहर के ऐसे ही कुछ लोगों से, जिन्होंने अपनी अक्षमता को बनाया अपनी ताकत और जीत लिया जहां।

बन रहे दूसरों का सहारा

चौरी चौरा के रहने वाले डॉ। उमेश चंद किरन आज दूसरों का सहारा बनते हैं। खुद बैसाखियों पर चलते रहे, लेकिन अपने जैसे सैकड़ों लोगों को अपने पैरों पर खड़ा कर चुके हैं। 2 दिसंबर 1970 को जन्मे डॉ। उमेश तीन साल की उम्र में पोलियो के शिकार हो गए। लखनऊ में इलाज के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनसे उनके सपनों के बारे में पूछा तो उमेश का जवाब था, समाजसेवा। अपने इस सपने को पूरा करने के लिए चौरीचौरा से इंटरमीडिएट और गोरखपुर यूनिवर्सिटी से एमए करने के बाद डॉ। उमेश बनारस जाकर कृत्रिम पैर बनाने की तकनीक सीखने लगे। उनके एक परिचित ने उन्हें इलाज के लिए गोरखपुर मानव सेवा संस्थान भेजा। एक वक्त पर यहां मरीज बनकर आए डॉ। उमेश आज उसी संस्थान में आर्टिफिशियल लिम्ब्स बनाकर विकलांगों को अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत और प्रेरणा देते हैं।

संवारना है भारत का भविष्य

बेसिक शिक्षा विभाग में कार्यरत मोहन लाल सिंह जन्म से नेत्रहीन हैं। लेकिन उनकी नजर दूर की है। बिना किसी की मदद लिए 25 से?ज्यादा बच्चों को पढ़ाई-लिखाई के लिए हर सुविधा मुहैया कराते हैं ताकि भारत का भविष्य उज्जवल हो। मोहन अपने हर माह का वेतन इन्हीं बच्चों पर खर्च करते हैं। राजेंद्र नगर पश्चिमी में 22 डिसमिल पुश्तैनी जमीन भी बच्चों की नींव मजबूत बनाने के लिए दान कर दी। मोहन लाल ऑफिस से निकलने के बाद बच्चों के साथ रहते हैं। ऑफिस टाइम में बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी पत्नी कमला देवी पर होती है। उनके हास्टल में देवरिया, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, खलीलाबाद, बस्ती तथा गोरखपुर के 25 बच्चे नि:शुल्क रहे हैं।

दिमाग में होती है विकलांगता

महज ढाई साल की उम्र में पोलियो की चपेट में आए वीर बहादुर सिंह जीवटता की मिसाल हैं। मुंबई में इलाज से शरीर का ऊपरी हिस्सा तो ठीक हो गया लेकिन कदम नहीं बढ़ सके। भगवान ने शरीर में कमी बरती तो दिमाग तेज बख्शा। 1992 में इंटरमीडिएट के एग्जाम में वीर बहादुर ने यूपी बोर्ड में 20वां स्थान प्राप्त किया। उसके बाद बीएचयू से स्नातक और परास्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद आईआईटी दिल्ली से एमटेक किया। फिर देश के लिए कुछ करने की इच्छा हुई तो सिविल सर्विसेज क्वालिफाई किया। आज वीर बहादुर सिंह गोरखपुर में कर्मचारी भविष्य निधि के कमिश्नर पद पर तैनात हैं। उन्होंने मजदूरों और कर्मचारियों का पीएफ अकाउंट?खुलवाने में सफलता हासिल की है। उनका मानना है कि विकलांगता व्यक्ति के शरीर में नहीं, दिमाग में होती है।

तिनका-तिनका जोड़ बने मिसाल

गोरखपुर जंक्शन के सामने दो दुकानों के मालिक रामनरेश यादव की कहानी सलीम-जावेद की फिल्म जैसी है। मूल रूप से छपरा के रहने वाले रामनरेश गांव में गरीबी और विकलांग होने का ताना सुन-सुनकर 70 के दशक में भागकर गोरखपुर आ गए। किसी तरह कुछ रुपयों का जुगाड़ कर रेलवे स्टेशन के सामने मूंगफली बेचना शुरू कर दिया। कुछ पैसा जोड़ा तो ठेला लेकर सब्जी की दुकान लगा ली। 1989 में नगर निगम की दुकान एलॉट कराई और आज सफलतापूर्वक दुकानदारी कर रहे हैं। रामनरेश कहते हैं कि ताना मारने वाला गांव अब पीछे छूट गया है। मैंने अपने भाइयों को गोरखपुर बुलाया, उन्हें रोजगार दिलाया। अब मेरा परिवार सुखी है और यही मेरी संतुष्टि की वजह है।