8 सालों में हो गया सफाया
पर्यावरण प्रेमियों के लिए बरेली से एक बार फिर दुखद समाचार है। इस दौरान गिद्धों के घोंसले और उनके बच्चों पर भी ध्यान दिया गया लेकिन टीम के हाथ कुछ भी नहीं लगा। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार आठ साल पहले तक नहरकटिया क्षेत्र में सैकड़ों की संख्या में गिद्ध निवास किया करता थे लेकिन देखते ही देखते इनकी प्रजातियां देश के कई कोने के साथ बरेली से भी लुप्त हो गई। आज गिद्ध शोध का विषय बन चुके हैं नेशनल के साथ इंटरनेशल लेवल पर भी गिद्ध की बची प्रजाति को संरक्षित करने का प्लान बनाया जा रहा है। कई देश के वैज्ञानिक इस काम में जुट भी चुके हैं। करीब तीन साल पहले भी बरेली में गिद्धों की गणना की गई थी लेकिन उस वक्त भी यहां एक भी गिद्ध नहीं मिला।

Diclofenac हो सकती है वजह

16-20 नवंबर को पिंजौर में गिद्ध संरक्षण केन्द्र, पिंजौर हरियाणा में देश भर के कई वैज्ञानिक जुटे थे। जहां गिद्धों के संरक्षण पर बात की गई। शोध के दौरान यह बात भी सामने आई है कि पशुओं पर अब भी डाक्लोफेनिक दवा का यूज किया जा रहा है। यह एक मुख्य वजह हो सकती है गिद्धों की संख्या कम होने की। इस शोध के आधार पर डाइक्लोफेनिक की शीशी पर अंग्रेजी, हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा में पशुओं के उपयोग के लिए नहीं लिख जाएगा। यह प्रस्ताव केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजा गया है। प्रतिबंध के बाद भी इस दवा को पशुओं में यूज किया जाता है। जब उनकी मौत हो जाती है तो गिद्ध उन्हें खाते हैं और पशुओं के बॉडी में फैले डाइक्लोफेनिक का असर भी गिद्धों पर होता है और तुरंत उनकी किडनी फेल हो जाती है। गिद्धों पर हुए शोध में यह बात साबित हो चुकी है.Eco friendly है
गिद्ध की लगातार कम हो रही संख्या काफी संकट की बात  हो गई है। एनवायरमेंट के लिए इसे काफी जरूरी माना जाता है। गिद्ध एनवायरमेंट के कार्बन चक्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। मृत जीवों को खाकर एनवायरमेंट को संतुलित रखने में गिद्ध की भूमिका सबसे अहम होती है लेकिन लगातार गायब हो रहे गिद्ध पूरी दुनिया के सामने कार्बन चक्र के पूरा नहीं होने का सवाल खड़ा कर दिया है.  ऐसी स्थिति में  दुनिया के वैज्ञानिकों के बीच यह बहस छीड़ गई और लगातार शोध हो रहे हैं। गिद्ध की प्रजाति को सुरक्षित रखने के लिए आईवीआरआई में भी साइंटिस्ट कई रिसर्च कर रहे हैं ताकि गिद्ध फिर बहुतायत की संख्या में हो जाए।
गिद्ध हमेशा झुंड में रहते है और जब किसी भी स्थान पर मृत शव पड़ा रहता है तो वहां वो पहुंच जाते हैं और भोजन के रूप उनका सेवन करते हैं। पर गिद्धों की संख्या कम होने से अब ऐसा नहीं हो रहा है। कई-कई दिन तक जानवरों के शव जंगल या खुल्ले मैदान में पड़े रह जाते हैं और संक्रमित हो कर उनका शव सडऩे लगता है। ऐसी स्थिति में हवा में भी संक्रमण के कीटाणु घूमने लगते हैं जो स्वस्थ्य जानवरों और इंसानों तक को प्रभावित कर सकता है। इतने महत्वपूर्ण गिद्ध का संरक्षण काफी जरूरी है।


गिद्धों के नहीं मिलने की रिपोर्ट जल्द ही लखनऊ मुख्य कार्यालय भेज दी जाएगी और जो निर्देश आएंगे उस पर कार्य किया जाएगा।
- कैलाश प्रकाश
सब डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर, बरेली