जब रैंक नहीं, डिवीजन रखता था मायने

-कभी साइकिल लेकर दिनभर ढूंढते रहते थे न्यूज पेपर

-केवल पास हो जाना होता था बड़ी बात, अब है रैंक और नंबरों का खेल

-अब तो चंद पलों में मोबाइल पर मिल जाता है रिजल्ट

vineet.tiwari@inext.co.in

ALLAHABAD: यूपी बोर्ड का रिजल्ट रविवार को आया। रिजल्ट अनाउंस होते ही हाथों में मोबाइल लिए युवाओं की टोली परिणाम देखते मिली। इसके साथ ही याद आ गया वो जमाना जब रिजल्ट जानने की बेकरारी में घंटों बीत जाते थे। पहले तो अखबार आने का इंतजार। बड़ी मुश्किल से किसी के यहां पेपर मिल भी गया तो घंटों तक रोल नंबर ढूंढने की कवायद। फिर अगर सेकंड डिवीजन भी पास हो गए तो खुशी का वो आलम कि पूछिए मत। दैनिक जागरण-आई नेक्स्ट ने तब और अब रिजल्ट के इंतजार पर टॉपर्स के पैरेंट्स से बातचीत की तो कुछ यूं खुली यादों की पोटली

भाई और रिश्तेदार बताते थे रिजल्ट

हाईस्कूल की यूपी टॉपर अंजली वर्मा की मां इस समय प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं। वह कहती हैं कि उनके समय में लड़कियां घर से बाहर कम निकलती थीं। घर में भाई या पिता को रोल नंबर दे दिया जाता था। वह न्यूज पेपर में देखकर बता दिया करते थे। रिजल्ट का क्रेज तो पहले भी होता था लेकिन इतने संसाधन नहीं होते थे। तब रैंक और नंबर की जगह डिवीजन मायने रखता था।

सुबह से होता था न्यूज पेपर का इंतजार

इंटरमीडिएट रिजल्ट में जिले में छठवीं रैंक पाने वाले अमन सिंह के पिता शिवगणेश सिंह कहते हैं कि अब और पहले में काफी अंतर है। जब वह पढ़ते थे तो बेहद शिद्दत से बोर्ड के रिजल्ट का इंतजार होता था। सुबह से न्यूज पेपर की बाट जोही जाती थी। साइकिल लेकर गांव के चक्कर काटे जाते थे। लोग पेपर में रिजल्ट दिखाने के भी पैसे लिया करते थे। जिसके पास न्यूज पेपर होता था वह उस दिन काफी विशेष व्यक्ति माना जाता था।

देने पड़ते थे अधिक रुपए

हाईस्कूल में छठवीं रैंक लाने वाली स्वाति सिंह के पिता मनोज कहते हैं कि आजकल मोबाइल पर आसानी से रिजल्ट घर बैठे देख लिया जाता है। जबकि पूर्व में अगर न्यूज पेपर मिल जाए तो फिर डिवीजन के हिसाब से पैसे देने होते थे। थर्ड डिवीजन पास होने पर 5 रुपए और सेकंड डिवीजन में 10 से 15 रुपए वसूल किया जाता था। फ‌र्स्ट डिवीजन रिजल्ट है तो न्यूज पेपर वाला 25 से 30 रुपए वसूल किया करता था। लोग खुशी-खुशी दे दिया करते थे। अगर फेल हो गए तो भी पांच रुपए रिजल्ट देखने से पहले ही जमा करा लिया जाता था।