व्यावहारिक रूप से यह तीसरे मोर्चे की तैयारी है, पर बनाने वाले ही कह रहे हैं कि औपचारिक रूप से तीसरा मोर्चा चुनाव के पहले बनेगा नहीं. बन भी गया तो टिकेगा नहीं.
हाल में ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी. यह पेशकश नरेन्द्र मोदी के भूमिका-विस्तार के साथ शुरू हुई. पर वे इस विमर्श में शामिल नहीं होंगी, क्योंकि मेज़बान वामपंथी दल हैं.
राष्ट्रीय परिदृश्य पर कांग्रेस और भाजपा दोनों को लेकर वोटर उत्साहित नहीं है, पर कोई वैकल्पिक राजनीति भी नहीं है. उम्मीद की किरण उस अराजकता और अनिश्चय पर टिकी है जो चुनाव के बाद पैदा होगा.
ऐसा नहीं कि तीसरे मोर्चे की कल्पना निरर्थक और निराधार है. देश की सांस्कृतिक बहुलता और सुगठित संघीय व्यवस्था की रचना के लिए इसकी ज़रूरत है.
पर क्या कारण है कि इसके कर्णधार चुनाव में उतरने के पहले एक सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम के साथ चुनाव में उतरना नहीं चाहते?
खतरों से लड़ने वाली राजनीति
हमारी राजनीति को ख़तरों से लड़ने का शौक है. आमतौर पर यह ख़तरों से लड़ती रहती है.
1967 के बाद से गठबंधनों की राजनीति को प्रायः उसके मुहावरे वामपंथी पार्टियाँ देती रहीं हैं. गठबंधन राजनीति के फोटो-ऑप्स में पन्द्रह-बीस नेता मंच पर खड़े होकर दोनों हाथ एक-दूसरे से जोड़कर ऊपर की ओर करते हैं तब एक गठबंधन का जन्म होता है. यह गठबंधन किसी ख़तरे से लड़ने के लिए बनता है.
जब तक नेहरू थे तब ख़तरा यह था कि वे नहीं रहे तो क्या होगा? इंदिरा गाँधी का उदय देश की बदलाव विरोधी ताकतों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए हुआ था. संयोग से वे बदलाव विरोधी ताकतें कांग्रेस के भीतर ही थीं, पर प्रतिक्रियावादी थीं. जेपी आंदोलन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था.
जनता पार्टी तानाशाही के खतरे से बचाने के लिए आई. एक दौर ऐसा था जब राष्ट्रीय एकता और अखंडता के सामने खड़ा ख़तरा केन्द्र सरकार को कायम रखने का महत्वपूर्ण कारण था. हाल के वर्षों में साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद के दो बड़े ख़तरों का आविष्कार भारत की वामपंथी पार्टियों ने किया है.
साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद
जब तक हरकिशन सुरजीत सक्रिय थे, इन दोनों ख़तरों में साम्प्रदायिकता ज़्यादा बड़ा खतरा था. इस आधार पर वाम मोर्चे ने सन 2004 में यूपीए-1 का समर्थन कर दिया तो उसे लगा कि साम्राज्यवाद और भी ज्यादा बड़ा ख़तरा है. उसने काफी देर बाद दिल्ली सरकार से समर्थन वापस ले लिया. पर सरकार बच गई.
इसके बाद सन 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, तेदेपा, अद्रमुक, जेडीएस, हजकां, पीएमके और एमडीएमके के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चा बनाया, पर परिणाम अच्छा नहीं रहा. चुनाव से पहले इस मोर्चे के सदस्यों की संख्या 102 थी जो चुनाव के बाद 80 रह गई.
आज जो बैठक हो रही है उसे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संयुक्त मंच कहा गया है. इस नज़रिए से यह भाजपा विरोधी मोर्चा है. इसके स्वर कांग्रेस-विरोधी भी हैं, पर इसमें समाजवादी पार्टी और जदयू शामिल हैं. इनके प्रकारांतर से कांग्रेस के साथ रणनीतिक रिश्ते हैं. ये रिश्ते साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए हैं.
इस मंच में द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, बसपा, झारखंड मुक्ति मोर्चा, राजद और लोजपा जैसी पार्टियाँ नहीं हैं, क्योंकि इस मोर्चे में शामिल किसी न किसी पार्टी से इनका मेल नहीं बैठता.
मोर्चा बने न बने, सरकार बनेगी
इस महीने 7 अक्तूबर को समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह ने कर्नाटक के भाजपा के पूर्व नेता बाबा गौडा पाटिल को अपनी पार्टी में शामिल कराने के मौके पर कहा था कि लोकसभा चुनाव के बाद गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी.
साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव से पहले यह मोर्चा नहीं बनेगा. अभी इसकी जमीन तैयार होगी. उनका कहना था कि चुनाव से पहले मोर्चा बनाने में हमेशा दिक्कतें आती हैं. सीटों के बंटवारे को लेकर मुश्किल हो जाती है. हर बार यह चुनाव बाद ही बनता है. इस बार भी चुनाव बाद ही बनेगा.
मुलायम सिंह से पहले सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने इस साल अप्रैल में कहा था कि केंद्र में तीसरा मोर्चा बनाना आसान नहीं है, क्योंकि पार्टियाँ मौके पर तेजी से अपना रुख बदल लेती हैं.
इस लिहाज़ से बुधवार की यह बैठक होली मिलन या इफ्तार पार्टी जैसा है, जिसका उद्देश्य उस शब्दावली की ईज़ाद करना है, जो चुनाव के बाद के गठजोड़ को खूबसूरत नाम देने के काम आएगी.
उम्मीद है कि अन्नाद्रमुक, सपा, बीजू जनता दल (बीजद), जनता दल (यूनाइटेड), झारखंड विकास मोर्चा, रिपब्लिकन पार्टी और वाम मोर्चा से जुड़ी चारों पार्टियाँ सम्मेलन में शिरकत करेंगी. इसमें यूआर अनंतमूर्ति, श्याम बेनेगल और मल्लिका साराभाई जैसे संस्कृति कर्मी भी हिस्सा लेने वाले हैं.
राजनीतिक लाभ के लिए नहीं
प्रकाश करात का कहना है कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई संकीर्ण राजनीतिक नफे के लिए गढ़ा जाने वाला कोई चुनावी नारा नहीं है. इस वक्त साम्प्रदायिक शक्तियाँ, खासतौर से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के झंडे तले हिन्दुत्ववादी ताकतें साम्प्रदायिक मसलों को उठाकर एकजुट हो रहीं हैं. इसलिए यह ज़रूरी है. उनका इशारा मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे से था.
भारत की राजनीति में तीसरा मोर्चा लगातार चलने वाला एक रोचक प्रहसन है. चुनाव के बाद सम्भव है कि इस सांस्कृतिक प्रक्रिया में शामिल कुछ पार्टियाँ इससे बाहर हो जाएं और अभी जो बाहर नज़र आ रहीं हैं वे इसमें शामिल हो जाएं.
रालोद नेता अजित सिंह ने हाल में एक चैनल से कहा कि तीसरा मोर्चा भ्रम है, क्योंकि चौधरी चरण सिंह और वीपी सिंह जैसा कोई धाकड़ नेता सामने नहीं है, जिसकी पूरे देश में पहचान हो. पर कोई आश्चर्य नहीं कि चुनाव के बाद कोई अनजान नेता उभर कर सामने आ जाए जैसे की एचडी देवेगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल उभर कर आए थे.
जनता पार्टी एक प्रकार का गठबंधन था, नहीं चला. जनता दल भी गठबंधन था. राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा भी गठबंधन थे जो साल, डेढ़ साल से ज्यादा नहीं चले. इनके बनने के मुकाबले बिगड़ने के कारण ज्यादा महत्वपूर्ण थे. राजनीतिक गठबंधनों का इतिहास बताता है कि इनके बनते ही सबसे पहला मोर्चा इनके भीतर बैठे नेताओं के बीच खुलता है.
क्षेत्रीय क्षत्रपों का दौर
"तीसरा मोर्चा भ्रम है, क्योंकि चौधरी चरण सिंह और वीपी सिंह जैसा कोई धाकड़ नेता सामने नहीं है, जिसकी पूरे देश में पहचान हो. पर कोई आश्चर्य नहीं कि चुनाव के बाद कोई अनजान नेता उभर कर सामने आ जाए जैसे की एचडी देवेगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल उभर कर आए थे."
-अजित सिंह, रालोद नेता
पिछले दो साल से सुनाई पड़ रहा है कि यह क्षेत्रीय दलों का दौर है. इस उम्मीद ने लगभग हर प्रांत में प्रधानमंत्री पद के दावेदार पैदा कर दिए हैं. भले ही चुनाव व्यवस्था पश्चिमी है, पर क्षत्रप शब्द हमारा अपना है.
आधुनिक भारतीय राजनीति पर क्षेत्रीय सूबेदारों के हावी होने की वजह है हमारी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता. यों एक धीमी प्रक्रिया से क्षेत्रीयता और राष्ट्रीयता का समागम हो रहा है.
पार्टियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. यह बहुलता किसी एक दल या समूह की दादागीरी कायम नहीं होने देती. यह इस राजनीति की ताकत है और कमज़ोरी भी. इसके आधार पर विकसित गठबंधन की राजनीति को परिभाषित करने की ज़रूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है.
राष्ट्रीय पार्टियों की ताकत घटी
राष्ट्रीय दलों की ताकत घटी है. सीटों और वोटों दोनों में सन 1996 के बाद से यह गिरावट देखी जा सकती है. पर यह इतनी नहीं घटी कि उनकी जगह कोई तीसरा मोर्चा ले सके.
अब भी दो तिहाई सीटें और वोट राष्ट्रीय दलों को मिलते हैं. सरकार बनाने के लिए कांग्रेस या भाजपा की या तो मदद लेनी होगी या दोनों में से किसी का समर्थन करना होगा.
आदर्श राजनीति वह है जिसमें गठबंधन चुनाव-पूर्व बनें. उनका राजनीतिक कार्यक्रम बने. फिलहाल पार्टियाँ इसे जोखिम भरा और निरर्थक काम मानती हैं, क्योंकि वे चुनाव बाद की स्थितियों के लिए खुद को फ्री रखना चाहती हैं.
ज्यादातर पार्टियाँ सैद्धांतिक आधार पर नहीं बनी हैं. उनके बनने में भौगोलिक और सामाजिक संरचना की भूमिका है. हम इन्हें व्यक्तियों के नाम से जानते हैं.
पार्टी नहीं नेता
बसपा के बजाय मायावती का नाम लेना ज्यादा आसान है. ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, जे जयललिता, करुणानिधि, चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह बादल, एचडी देवेगौडा, जगनमोहन रेड्डी, फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, लालू यादव, राम विलास पासवान, मौलाना बदरुद्दीन अजमल, नवीन पटनायक, कुलदीप बिश्नोई और नीतीश कुमार नेताओं को नाम हैं जो पार्टी के समानार्थी हैं.
कुछ फर्क भी हैं, मसलन मायावती जितनी आसानी से फ़ैसले कर सकती हैं उतनी आसानी से नीतीश कुमार नहीं कर सकते, पर महत्व क्षत्रप होने का है. सामाजिक-सांस्कृतिक और क्षेत्रीय संरचनाओं में भी बदलाव आ रहा है. उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की संख्या तकरीबन साढ़े अठारह फीसदी है,जबकि असम में तकरीबन तीस फीसदी.
असम विधान सभा चुनाव में पिछली बार मौलाना बदरुद्दीन अजमल के असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने सफलता हासिल करके मुसलमानों के अपने राजनीतिक संगठन का रास्ता साफ किया. पर उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की तकरीबन एक दर्जन पार्टियाँ खड़ी हैं.
यह बात रास्ते खोलने के बजाय बंद करती है. इनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के जुलाहे और पसमांदा मुसलमान भी हैं. असम और केरल की तरह यूपी के मुसलमान एक ताकत नहीं हैं.
शहरी मध्य वर्ग का उदय
इस बार के चुनाव में शहरी मध्य वर्ग और युवा मतदाता नई ताकत के रूप में उभरने जा रहा है, जबकि पार्टियाँ परम्परागत तरीके से सोच रहीं हैं. नवम्बर-दिसम्बर में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में इसका नमूना देखने को मिलेगा.
खासतौर से दिल्ली में, जहाँ आम आदमी पार्टी को लेकर अभी रहस्य है. यह पार्टी साम्प्रदायिकता विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी है या नहीं कहना मुश्किल है.
यह भ्रष्टाचार विरोधी है. यह बात वोटरों के मन में सनसनी पैदा करती है. राजनेताओं को समझ में नहीं आता कि यह कैसी राजनीति है?
बहरहाल आज की मुलाकात काफी महत्वपूर्ण है, खासतौर से मीडिया के लिए जो लम्बे अरसे से राहुल-मोदी चालीसा का पाठ कर रहा है. उसे विचार-मंथन के लिए कुछ सामान मिलेगा. आज इसी बात पर सही. मिलते हैं ब्रेक के बाद....
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