प्रश्न: क्या हम सबकी मन:स्थितियों को देखकर भी आप कबीर की भांति कह सकते हैं, साधो सहज समाधि भली?

कबीर ने तुम्हारी मन:स्थिति देखकर ही कहा था। दो ही तरह के लोग हैं। ज्ञानी हैं, अज्ञानी हैं और जब भी कभी ज्ञानी का दीया जलता है, तो जो दीये की खोज में हैं, रोशनी की खोज में हैं; वे इकट्ठे हो जाते हैं। तुम ही बुद्ध के पास थे, तुम ही महावीर के, तुम ही कबीर के। तुम्हारे जैसे ही लोग! तुम से ही कहा था 'साधो सहज समाधि भलीÓ। और क्यों कहा था, क्योंकि तुम सबके मन में यह ख्याल है, कि समाधि बड़ी कठिन बात है कठिन ही नहीं, असंभव! और यह ख्याल तुमने ही पैदा कर लिया है। कोई ज्ञानी नहीं कहता कि समाधि कठिन बात है। यह तुम्हारी तरकीब है। तुम्हें जो काम नहीं करना, उसको तुम असंभव कहते हो। जिससे तुम्हें बचना है, उसे तुम कठिन कहते हो। जिस तरफ तुम्हें जाना ही नहीं, उस तरफ तुम कहते हो, यह होने वाला ही नहीं; यह बहुत मुश्किल है। यह अपने वश के बाहर है। जो वश के भीतर है, वही हम करें। यह तो वश के बाहर है--मोक्ष, निर्वाण, आनंद। सुख तो मिल नहीं रहा हमें, आनंद कैसे मिलेगा? यह तो असंभव है।

हम तो सुख खोज लें। यह परम-धन मिलेगा, नहीं मिलेगा! सांसारिक धन ही नहीं मिल पा रहा है; पहले तो हम इसे खोज लें। क्षुद्र पर ही हाथ नहीं आ रहे, विराट पर कैसे आएंगे? क्षुद्र का ही द्वार नहीं खुल रहा, चाबी नहीं लग रही, विराट का द्वार कैसे हमसे खुलेगा? कठिन है। असंभव है। ऐसे तुम स्थगित कर देते हो। इस तरकीब से तुम टाल देते हो। तुम ध्यान रखना इस बात का कि जब तुम किसी चीज को कठिन कह देते हो, तो तुम्हारे प्रयोजन क्या हैं? क्यों तुम कठिन कहते हो? वस्तुत: कठिन है या तुम बचना चाहते हो? या तुम कहते हो अभी समय मेरा नहीं आया, अभी मुझे करना नहीं है, इसलिए कठिन कहते हो? मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, शांति चाहिए।

उनसे मैं कहता हूं, थोड़ा ध्यान करो। वे कहते हैं, समय नहीं है। अशांति के लिए समय है, और शांति के लिए समय नहीं! प्रसाद में कहीं बटती हो, मिल जाए। इन्हीं लोगों को मैं सिनेमा में बैठे देखूं, इन्हीं लोगों को होटल में बैठे देखूं; ये ही ताश खेलते हैं। इनको ही तुम घर में बैठे देखो, उसी अखबार को तीसरी बार पढ़ रहे हैं! इनसे तुम कभी मिलो घर पर तो इनसे पूछो, कि क्या कर रहे हैं? तो कहते हैं क्या करें, समय नहीं कटता। और जब इनसे कहो ध्यान करो, तो अचानक उनके मुंह से निकलता है, समय नहीं है। ऐसा नहीं कि वे सोचकर कह रहे हों। यह हो ही कैसे सकता है, कि समय न हो? क्योंकि समय तो सभी के पास बराबर है। चौबीस घंटे से ज्यादा न तो बुद्ध के पास हैं, न तुम्हारे पास। अगर चौबीस घंटे में ही कोई बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया तो तुम भी हो सकते हो। और तुम यह आशा मत रखो कि तुम्हें कोई पच्चीसवां अतिरिक्त घंटा दिया जाएगा। आठ घंटे सो लेते हो, आठ घंटे समझो दफ्तर में लगा देते हो, चार घंटे खाना-पीना स्नान में लग जाते हैं; बाकी चार घंटे बचते हैं।

मैं कहता हूं, एक घंटा काफी है। तुम्हें होश भी नहीं है, तुम क्या कर रहे हो। तुम टाल रहे हो। तुम बात यह कह रहे हो कि समय है ही नहीं; इसलिए करने का कोई सवाल न रहा. जिम्मेवारी समाप्त हो गई। अशांति पैदा करने के लिए तुम्हारे पास चौबीस घंटे हैं। शांति पैदा करने के लिए एक घंटा नहीं है। परमात्मा को लोग कहते हैं बहुत कठिन है। तुमने ही कहानियां गढ़ ली हैं। तुम ही कहते हो कि जन्मों-जन्मों का पाप जब कटेगा, तब परमात्मा मिलेगा। किसने तुमसे कहा है? तुम ही अपने शास्त्र बना लेते हो।

अगर जन्मों-जन्मों का पाप कटने में उतना ही समय लगेगा, जितने में तुमने पाप किया, तब तो परमात्मा कभी नहीं मिलेगा। जब तुम अपने पाप काट रहे हो, तब तुम पाप करना बंद कर दोगे क्या? इस बीच कर्म तो लगते ही रहेंगे। नहीं, वास्तविक अवस्था बिल्कुल अन्य है। जैसे अंधेरे में दीया जलता है और हजारों साल का अंधेरा क्षण भर में मिट जाता है, वैसे ही हजारों साल के पाप ध्यान के दीये के जलते ही मिट जाते हैं क्योंकि तुमने जो पाप किए, वे मूच्र्छा में किए। सारी साधना का सूत्र एक है कि तुम जाग जाओ। ऐसी ही घटना घटती है अंतस के लोक में।

— ओशो।

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