आज के दौर में जेनरेशन-वाई की यही सबसे बड़ी समस्या है। एक्सपट्र्स की मानें तो अगर यूथ वाकई में बदलाव चाहते हैं तो उन्हें खुद भी पॉलिटिक्स में इनवॉल्व होने की जरूरत है। क्योंकि जोश, जज्बा और जुनून का मतलब ही यूथ होता है। इसका मतलब हुआ कि यूथ कुछ भी कर सकता है तो फिर पॉलिटिक्स क्या चीज है। बस यूथ को आगे आना होगा। आज यूथ डे है तो फिर देर किस बात की, बढि़ए आगे और बदल दीजिए सबकुछ।

दिल से नो कनेक्शन

वोटर लिस्ट में नाम जुड़वा लेने या पोलिंग-डे पर वोट डाल देने भर से पॉलिटिक्स में चेंजेज पॉसिबल नहीं है। पिछली बार हजारों यूथ वोटर्स ने अपना नाम वोटर लिस्ट में जुड़वाया था, लेकिन यूथ का पोलिंग परसेंटेज सिर्फ 18 परसेंट रहा। मतलब, यूथ्स ने नाम तो जुड़वाए, लेकिन दिल से इलेक्शन में खुद को कनेक्ट नहीं कर पाए।

शायद इसलिए भी क्योंकि उन्हें ‘यूथ वोट बैंक’ की पॉवर का अंदाजा ही नहीं था। इस बार पहली बार करीब ढाई लाख वोटर्स का नाम वोटर लिस्ट में शामिल किया गया है। वोटर्स का यह सेगमेंट दिल से जुड़ा है या नहीं? इस बात का पता वोटिंग-डे पर ही चल पाएगा।

Youth का है बोलबाला

इलेक्शन में यूथ पॉवर का असर हमेशा से दिखा है। अकेले कानपुर में 58 परसेंट यानि 13 लाख वोटर यूथ है। यह वोट बैंक जिस ओर झुक गया। उस पार्टी की नैय्या पार समझिए। वोट बैंक की इस ताकत को शायद खुद यूथ नहीं समझता। पीपीएन कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के एचओडी डॉ। राकेश कुमार का कहना है कि पॉलिटिक्स के अभी तक के सीन में टाइम, मनी, मसल पॉवर का बोलबाला रहा है। आज का यूथ इन सभी सेक्शन में कहीं भी फिट नहीं हो पा रहा है। इसलिए उन्हें पॉलिटिक्स, उसकी पॉवर और उससे किए जा सकने वाले पॉवरफुल चेंजेज का अंदाजा नहीं है। इस बारे में स्टूडेंट्स का कहना है कि हमारे पास टाइम तो है, लेकिन मनी और पॉवर नहीं है। ऐसे में पॉलिटिक्स में एक्टिवली पार्टिसिपेट कैसे करें?

छात्रसंघ चुनाव जरूरी

कॉलेज से पासआउट जेनरेशन-वाई की नई पौध पॉलिटिक्स से खिंची-खिंची सी क्यों रहती है? सिर्फ इसलिए क्योंकि वो वाकई में इससे दूर रहना चाहते हैं? या फिर उन्हें पॉलिटिक्स की एबीसीडी के बारे में पता नहीं है? इस बाबत सीएसजेएम यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार सैय्यद वकार हुसैन ने रीजनेबल और वैलिड जवाब दिया।

उनके मुताबिक सन् 2005 से यूपी में गवर्नमेंट ने छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगा रखी है। मतलब, सात सालों से स्टूडेंट्स कॉलेज की पॉलिटिक्स से कोसों दूर हैं। इसलिए जब वोटिंग का नम्बर आता है। तो वो वोट को लेकर ज्यादा इंटरेस्ट नहीं दिखाते। हालांकि, बीएससी स्टूडेंट आशुतोष तिवारी का इस बारे में अपना अलग तर्क है।

आशुतोष का मानना है कि कॉलेज लेवल की पॉलिटिक्स में राजनीति कम और गुंडागर्दी ज्यादा होती है। आए दिन कॉलेज में मारपीट और बवाल होता रहता है। इसके अपोजिट एमकॉम स्टूडेंट अंकुर मानते हैं कि कॉलेज पॉलिटिक्स की वजह से स्टूडेंट्स में लीडरशिप क्वालिटी डेवलेप होती है। इससे स्टूडेंट्स की पर्सनेलिटी तो ग्रूम होती ही है, उनमें पॉलिटिक्स की समझ भी डेवलेप होती है।

Politics की पहली सीढ़ी

रजिस्ट्रार सैय्यद वकार हुसैन की मानें तो कॉलेज की पॉलिटिक्स स्टूडेंट्स के लिए स्टेट और नेशनल लेवल की पॉलिटिक्स में इनवॉल्वमेंट की अहम सीढ़ी है। कॉलेज लेवल इलेक्शन में इनडायरेक्ट ही सही, स्टूडेंट्स को अपने लिए एक सही स्टूडेंट लीडर चुनने का मौका और एक्सपीरियंस तो मिलता है। कॉलेज इलेक्शन्स पर बैन की वजह से स्टूडेंट्स को इलेक्शन को नजदीक से एक्सपीरियंस करने का मौका भी छिन गया। इसीलिए जब पार्लियामेंट-असेम्बली इलेक्शन में वोटिंग का मौका आता है।

तो स्टूडेंट्स एक्टिवली इनवॉल्व नहीं होते। एचबीटीआई स्टूडेंट गौरव ने बताया कि कॉलेज और स्टेट-नेशनल लेवल पॉलिटिक्स में जमीन-आसमान का अंतर है। दोनों के अपने फायदे और नुकसान है। इसलिए इनका आपस में कंपेरिजन करना सही नहीं है।

स्कूलों में ग्राउंड ट्रेनिंग

एक्सपट्र्स का मानना है कि जो स्टूडेंट्स स्कूल लेवल से ही एक्टिव पॉलिटिक्स में इनवॉल्व होते हैं वही कॉलेज और आगे की पॉलिटिक्स में बेहतरीन परफॉर्म करते हैं। इसलिए ग्राउंड लेवल ट्रेनिंग तो स्कूल लेवल से ही स्टार्ट होती है। हां, जहां तक पॉलिटिक्स की एबीसीडी का सवाल है। सिटी में कुछ स्कूल ऐसे हैं जिन्हें कहा जा सकता है कि वो बच्चों के लिए पॉलिटिक्स की समझ के लिए बेस्ट ग्राउंड हैं। उदाहरण के तौर पर सरस्वती शिशु मंदिर और विद्यामंदिर को ही ले लीजिए। यहां छात्र संसद का गठन होता है। इसमें पार्लियामेंट की तर्ज पर ‘स्टूडेंट्स की पार्लियामेंट’ बनाई जाती है। इसमें प्राइम मिनिस्टर और मिनिस्टर का चुनाव स्टूडेंट्स वोट के जरिए होता है। वहीं द जैन इंटरनेशनल में स्कूल लेवल पर भी इलेक्शन होते हैं। क्लास-11 और क्लास-12 के स्टूडेंट्स प्रीफेक्ट, स्कूल कैप्टन और हाउस कैप्टन में अपना नाम देते हैं। स्टूडेंट की एकेडमिक्स और बाकि की एक्टिविटीज को देखते हुए उन्हें एक कैंडीडेट के रूप में चुना जाता है। जिसे सबसे ज्यादा वोट मिलता है। उसी को कैप्टन बनाया जाता है।

शुरुआत तो करनी ही होगी

सिर्फ कहने-सुनने से पॉलिटिक्स के करप्ट फेज को बदला नहीं जा सकता। यूथ को खुद भी एक्टिवली इनवॉल्व होना पड़ेगा। एसएन सेन कॉलेज में सोशोलॉजी डिपार्टमेंट की एचओडी डॉ। मंजू जैन भी इस बात से पूरी तरह सरोकार रखती हैं। उनका कहना है कि देश का भविष्य ही यूथ है और जब तक इनको सही तरह से पॉलिटिक्स के बारे में गाइड नहीं किया जाएगा।

या ये खुद पॉलिटिक्स में एक्टिवली इनवॉल्व नहीं होंगे। तब तक जेनरेशन-वाई की यह फसल न तो पॉलिटिक्स को समझ पाएगी। ना ही देश को एक अच्छा नेता ही दे सकेगी। लीडरशिप की कमी होने के कारण ही यूथ्स में पॉलिटिक्स को लेकर इंट्रेस्ट खत्म होता जा रहा है।